चालीस से साठ के दशक के बीच ‘वनमाली’ हिन्दी के कथा जगत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। 1934 में उनकी पहली कहानी ‘जिल्दसाज़’ कलकत्ते से निकलने वाले ‘विश्वमित्र’ मासिक में छपी और उसके बाद लगभग पच्चीस वर्षों तक वे प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं ‘सरस्वती’, ‘कहानी’, ‘विश्वमित्र’, ‘विशाल भारत’, ‘लोकमित्र’, ‘भारती’, ‘माया’, ‘माधुरी’ आदि में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे। अनुभूति की तीव्रता, कहानी में नाटकीय प्रभाव, सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक समझ और विश्लेषण की क्षमता के कारण उनकी कहानियों को व्यापक पाठक वर्ग और आलोचकों दोनों से ही सराहना प्राप्त हुई।
आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने अपने श्रेष्ठ कहानियों के संकलन में उनकी कहानी ‘आदमी और कुत्ता’ को स्थान दिया था। करीब बीस वर्षों तक मध्यप्रदेश के अनेक विद्यालयों, महाविद्यालयों में वनमाली जी की कहानियाँ पढ़ाई जाती रहीं। उन्होंने करीब सौ से ऊपर कहानियाँ, व्यंग्य लेख एवं निबंध लिखे। कथा साहित्य के अलावा उनके व्यंग्य निबंध भी खासे चर्चित रहे हैं। आकाशवाणी इंदौर से उनकी कहानियाँ नियमित रूप से प्रसारित होती रहीं।
कथा साहित्य के अतिरिक्त ‘वनमाली’ जी का शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान रहा। वे अविभाजित मध्यप्रदेश के अग्रगण्य शिक्षाविदों में थे। गांधी जी के आव्हान पर कई वर्षों तक प्रौढ़ शिक्षा के काम में लगे रहे। फिर शिक्षक, प्रधानाध्यापक एवं उपसंचालक के रूप में उन्होंने बिलासपुर, खंडवा और भोपाल में कार्य किया और इस बीच अपनी पुस्तकों के माध्यम से, शालाओं और शिक्षण विधियों में नवाचार के कारण और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद् की समिति के सदस्य के रूप में शिक्षा जगत में उन्होंने महत्वपूर्ण जगह बना ली थी। 1962 में डाॅ. राधाकृष्णन के हाथों उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार से विभूषित किया गया।
वनमाली जी का जन्म 1 अगस्त 1912 को आगरा में हुआ। उन्होंने अपना पूरा जीवन मध्यप्रदेश में ही गुजारा और 30 अप्रैल 1976 को भोपाल में उनका निधन हुआ।
उनका पहला कथा संग्रह ‘जिल्दसाज’ उनकी मृत्यु के बाद 1983 में तथा ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ के नाम से दूसरा संग्रह 1995 में प्रकाशित हुआ था। वर्ष 2008 में वनमाली समग्र का पहला खण्ड तथा वर्ष 2011 में संतोष चैबे के संपादन में ‘वनमाली स्मृति’ तथा ‘वनमाली सृजन’ शीर्षक से दो खण्ड और भी प्रकाशित हुए हैं।